बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ क्यों?

बच्चों को किसी देश का भविष्य, रीढ़ माना जाता है लेकिन वर्तमान समय में भारत का भविष्य सरकार और राज्य सरकारो की ढील के चलते खतरे में आता नज़र आ रहा हैं। यह बात कड़वी जरूर है लेकिन आज की सच्चाई है। किसी बच्चें के जीवन की पहली सीढ़ी उसका विद्यालय माना जाता है। ओर इन्ही विद्यालय में पढ़ाने वाले अध्यापक उसके लिए माँ के बाद सबसे पहले वे सख्सियत होते है। जो किसी छात्र जीवन में  नैतिकता,सामाजिकता और सही मायनों में उसके सही मार्ग निर्देशन करने में सहायता करते है।  लेकिन आज उन्ही शिक्षक, अध्यापकों की संख्या में भारी कमी, बच्चों के भविष्य को अंधकार के रास्ते मे धकेलने का काम कर रही है।

वर्तमान समय में पूरे देश में कई हजारों की संख्या में सरकारी विद्यालय होने के बावजूद भी साक्षरता दर का मामूलीे रफ्तार से बढ़ना शिक्षक पद्धति और सरकार द्वारा किये गए वादों पर सवाल , सन्देह की स्थिति पैदा करती है। देशभर में 60 लाख शिक्षको के पद स्वीकृत होने के बावजूद भी  इस समय सरकारी विद्यालयों में लगभग 10 लाख से ज्यादा शिक्षक पद रिक्त है। सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटबिलिटी और चाइल्ड राइट एंड यू नाम की संस्थाओं के रिसर्च के आंकड़ो के अनुसार उत्तर प्रदेश और बिहार में सबसे अधिक रिक्त शिक्षक पद वाले राज्यो के रूप में पाए गये। 6 राज्यों के पड़ताल में यूपी और बिहार ऐसे राज्य हैं जहां सबसे ज्यादा कुल 4.2 लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। लाखों की संख्या में रिक्त पद से पता चलता है कि कई लाखों विद्यार्थी छात्रो से शिक्षा देने के नाम पर सिर्फ धोखा किया जा रहा है। गौरतलब बात यह है कि देश के विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों का 55 प्रतिशत भाग यानी लगभग 26 करोड़ बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ते है। ऐसे में शिक्षकों के रिक्त पड़े पद देश के विद्यार्थी छात्रों के लिए दुखदायीं है।

भारत की जीडीपी को देखते हुए शिक्षकों के रिक्त पदों के होने की स्थिति में सरकार और राज्य सरकार सीधे तौर पर पूरी तरह से जिम्मेदार नज़र आती है क्योंकि
भारत अपनी जीडीपी का लगभग 2.7 प्रतिशत भाग शिक्षा पर खर्च करता हैं। वहीं  अमेरिका,ब्रिटेन और न्यूजीलैंड जैसे कम जनसँख्या वाले देश अपनी जीडीपी का लगभग 6.2 प्रतिशत भाग शिक्षा व्यवस्था पर व्यय करते है । देश में गुणवत्ता प्रधान शिक्षा के लिए अच्छे शिक्षकों की बेहद जरूरत है। मगर, आंकड़ों पर गौर करें तो भारतीय शिक्षा की हालत यहीं पर पस्त हो जाती है। अच्छे और जरूरत के मुताबिक अध्यापकों की कमी हर राज्यों में है। एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में प्राइमरी स्तर पर तकरीबन 5 लाख अध्यापकों की कमी है, वहीं सेकेंडरी लेवल पर 14 फीसदी ऐसे स्कूल हैं जो न्यूनतम 6 अध्यापकों के पैमाने को पूरा नहीं कर पा रहे।

भारत सरकार ने छात्र और शिक्षक का अनुपात 40:1 निर्धारित किया हुआ है लेकिन कई हजारो सरकारी विद्यालयों में ये अनुपात 100-130: 1 तक का पहुँचा हुआ है। शिक्षक का समय से विद्यालयो में ना आना और गैर – शैक्षणिक कार्यों में शामिल रहना बच्चों की पढ़ाई में एक बड़ा रोड़ा बना हुआ है। आज जगह जगह पर निजी कोचिंग खुल गए है जिसका कारण है सरकारी विद्यालयो में पढाई का ना होना, शिक्षक लोग अधिक पैसा कमाने के चक्कर मे विद्यालयों के बच्चों को निजी ट्यूशन देकर पढ़ा रहे है। लेकिन ऐसी स्थिति में गरीब घर का बच्चा सही पढ़ाई ना होने के कारण फिर वही छोटे मोटे काम करने लगता है। साल दर साल रिजल्ट में आई गिरावट में टीचर्स का भी बहुत बड़ा योगदान है।

एनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर)जो कि ग्रामीण भारत के स्कूलों के नामांकन और उनकी शैक्षणिक प्रगति पर किया जाने वाला देश का सबसे बड़ा वार्षिक सर्वेक्षण है। इस रिपोर्ट के आंकड़ो के मुताबिक बिहार के प्राथमिक स्कूलों में 38.7 फीसदी अध्यापक प्रोफेशनली ट्रेंड नहीं हैं। वहीं, सेकेंडरी लेवल पर ऐसे अध्यापकों की संख्या यहां 35.1 फीसदी है। जबकि, पश्चिम बंगाल में यह आंकड़ा प्राथमिक शिक्षा में 31.4 और सेकंडरी लेवल पर 23.9 फीसदी है।

इसी साल, जुलाई में राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में एक सरकारी विद्यालय में शिक्षक की गैर मौजूदगी होंने से आठवी और दसवी के विद्यार्थी छात्रो का प्राइमरी छात्रों को पढ़ाने की खबर आयी जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश का शैक्षिक स्तर इतना गिर चुका है कि आज देश के विद्यालयों में बच्चें ही बच्चों को ज्ञान दे रहे है।

सरकार को इस समस्या की और ध्यान देना चाहिए, साथ ही राज्य सरकारों का भी यह फर्ज बनता है कि वह अपने राज्यों मे शिक्षा पर अधिक खर्च करे और उसके प्रसार प्रचार के लिए लोगों को जागरूक करे तथा रिक्त शिक्षकों के पदों को जल्द से जल्द पूरा भरने के लिए योजनाएं चलाए।

अखिल सिंघल

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